M P Ecotourism Development Board

शपथ प्रारूप

मैं ईश्वर को साक्षी मानते हुये निष्ठापूर्वक शपथ लेता (लेती) हूँ, कि मैं वनों, वन्यप्राणियों एवं पर्यावरण के संरक्षण हेत अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दूँगा (दूँगी)। मैं स्वयं अपने घर एवं खेत में वृक्ष लगाऊँगा (लगाऊँगी) एवं उनको संरक्षित भी करूँगा (करूँगी)। अन्य लोगों को भी वृक्षारोपण एवं उनके संरक्षण के लिये प्रेरित करूँगा (करूँगी)। वन एवं वन्यप्राणियों को स्वयं नुकसान नहीं पहुँचाऊंगा (पहुँचाऊंगी) एवं अन्य लोगों को भी नुकसान पहुँचाने से रोकने का सर्वोत्तम प्रयास करूँगा (करूँगी)। अपने घर, गाँव/नगर को स्वच्छ बनाये रखने में अपना योगदान दूँगा (दूँगी) एवं प्लास्टिक के उपयोग में कमी करने का भी वचन देता (देती) हूँ।

जय हिन्द!


प्रस्तावना

पर्यावरण अनादिकाल से जीवन का आधार है, एवं हमारा जीवन भी इसी पर निर्भर है। पर्यावरण के विभिन्न घटकों की आपस में क्रिया एवं प्रतिक्रिया से ही सम्पूर्ण जैवमण्डल संचालित होता है। हमारी भारतीय जीवन शैली में पर्यावरण के विभिन्न घटकों के प्रति सम्मान एवं उनके संरक्षण के लिए विभिन्न पारंपरिक पर्व एवं त्योहारों का प्रावधान हमारे पुरखों ने किया है। वैदिक काल से ही पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा, हमारी परंपरा रही है। आमजन को प्रकृति से जोड़ने हेतु म.प्र. ईकोपर्यटन विकासबोर्ड द्वारा वर्ष 2015-16 से छात्र-छात्राओं को अनुभूति शिविरों के माध्यम से प्रकृति से जोडने का प्रयास किया जा रहा है। इन शिविरों में वर्ष 2019-20 तक 3.5 लाख विद्यार्थी शामिल हो चुके हैं। वर्ष 2020-21 में कोरोना महामारी के कारण अनुभूति शिविरों का आयोजन नहीं किया जा सका था। स्थितियाँ सामान्य होने पर वर्ष 2021-22 में शिविरों का आयोजन किये जाने हेतु प्रयास किया जा रहा है। इन शिविरों के प्रतिभागियों को सारगर्भित एवं सचित्र पठन सामग्री उपलब्ध कराने की दृष्टि से यह पुस्तिका एवं ई-पुस्तिका, प्रकाशित की जा रही है। इस पुस्तिका में दी जा रही रोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारियों से विद्यार्थी प्रकृति के विभिन्न आयामों एवं उनके मध्य परस्पर निर्भरता (Interdependence) से परिचित हो सकेंगे, एवं आशा है कि वह प्रकृति के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रेरित होंगे। इस पुस्तिका के संकलन एवं संम्पादन में डॉ. सुहास कुमार एवं श्री एन.एस.डुंगरियाल – सेवानिवृत्त प्रधानमुख्य वनसंरक्षक, श्री जसवीर सिंह चौहान - प्रधानमुख्य वनसंरक्षक, श्री असीम श्रीवास्तव, श्री शुभरंजन सेन एवं श्री संजय शुक्ला - अपर प्रधानमुख्य वनसंरक्षक, श्री ए.के.खरे एवं डॉ. एस. वाघमारे - सेवानिवृत्त उपवनसंरक्षक द्वारा आवश्यक जानकारी एवं छायाचित्र उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। पुस्तिका के सम्पादन एवं समायोजन में श्री पंकज सिंह - सहायक महाप्रबंधक एवं श्रीमती वर्षा परिहार - प्रबंधक तथा टंकण में श्रीमती आरती खरे, श्री प्रकाश निकम एवं श्री अजय सोनवंशी, म.प्र. ईकोपर्यटन विकास बोर्ड का सराहनीय योगदान रहा है। हमें विश्वास है कि अनुभूति शिविरों के प्रतिभागियों एवं उनके परिवार के सदस्यों हेतु यह पुस्तिका / ई-पुस्तिका एक अति उपयोगी एवं संग्रहणीय पठन सामग्री सिद्ध होगी।

सत्यानंद, (भा.व.से.)
मुख्य कार्यपालन अधिकारी
मध्यप्रदेश ईकोपर्यटन विकास बोर्ड एवं
पदेन अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक(वन्यप्राणी)

अनुभूति - उद्देश्य

  • विद्यार्थियों अर्थात भविष्य के नागरिकों को प्रकृति की प्रत्यक्ष अनुभूति का अवसर प्रदान करना ।
  • विद्यार्थियों में वन, वन्यप्राणी एवं पर्यावरण के महत्व तथा संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करना ।
  • विद्यार्थियों को वन, वन्यप्राणी संरक्षण एवं संवर्धन में योगदान देने हेतु प्रेरित करना ।
  • विद्यार्थियों के माध्यम से वन, वन्यप्राणी एवं पर्यावरण संरक्षण का संदेश जन जन तक पहुंचाना।
  • पाठ्यक्रम में सम्मिलित पर्यावरण सम्बन्धित विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव कराना।
  • वन विभाग की संरचना, प्रमुख दायित्व एवं चुनौतियों से अवगत कराना।
  • शिविर में प्रेरित एवं इच्छुक प्रतिभागियों को नेचर वालेंटियर फोर्स के रूप में विकसित करना।

अनुभूति शिविर का एक दिन

समय 

गतिविधियाँ

7.00-7.15

शिविर की ब्रीफिंग

7.15-9.00

पक्षी दर्शन /वन्यप्राणी दर्शन/

/सफारी नौकायन /वन भ्रमण

9.00-9.30

नाश्ता

9.30-13.00

प्रकृति पथ भ्रमण/प्रकृति की पाठशाला/ स्थल पर विद्यमान वानिकी गतिविधियों की जानकारी वन /वन,वन्यप्राणी व पर्यावरण के महत्व का रेखांकन

13.00-14.00

दोपहर भोजन

14.00-15.00

जिज्ञासा समाधान/प्रश्नोत्तरी/ वन अमले का परिचय/पठन सामग्री/परिचर्चा/ नवाचार

15.00-16.00

वन, वन्यप्राणी व पर्यावरण से संबन्धित रोचक गतिविधियाँ सांस्कृतिक /गेम्स/ कार्यक्रम एवं अन्य प्रतियोगिताएं

16.00-16.30

 नेचर वालेंटियर फोर्स का चयन/फीडबैक/ शपथ

16.30-16.50

पुरस्कार वितरण

16.50-17.00

समूह फोटो व समापन




हम उत्तरदायी बनें - हमसे अपेक्षाएँ

विद्यार्थी – भविष्य के नागरिक

  • प्रकृति पथ भ्रमण एवं शिविर में शांति बनाए रखें।
  • किसी भी वन्यप्राणी को न तो छेड़ें एवं न ही खाने की वस्तुएं दें।
  • वनस्पतियों को किसी भी प्रकार की क्षति न पहुँचावें।
  • शिविर के दौरान किसी भी प्रकार की पत्ती, फल आदि को खाने से बचें।
  • भ्रमण के समय समूह में रहें, निर्धारित मार्ग से हटकर न चलें।
  • भ्रमण के दौरान वन अधिकारी/शिक्षक/स्त्रोत व्यक्ति के नजदीक रहकर निर्देशों का पालन करें।
  • जंगल में पॉलीथिन, प्लास्टिक, टिन, रैपर या अन्य कोई भी कचरा न फेंकें।
  • शिविर स्थल से किसी भी प्रकार की सामग्री जैसे-वनस्पति, वन्यप्राणी अवयव, मिट्टी व पत्थर आदि न लेकर जावें।
  • प्रकृति से जुड़ने के इस अवसर का पूर्ण लाभ लें एवं अपनी जिज्ञासाओं का समाधान अवश्य करावें।

शिक्षक -

  • शिविर आयोजन की सूचना संक्षिप्त जानकारी एवं तिथि की सूचना दो दिन पूर्व छात्रों को दें।
  • स्थल अथवा जंगल भ्रमण के दौरान, सभी छात्र, छात्राओं को अपनी निगरानी में सुरक्षित रखें।
  • विद्यार्थियों को जंगल भ्रमण के दौरान निर्धारित पथ पर कतार बद्ध होकर चलायें।
  • शिविर में सुचारू संचालन एवं अनुशासन बनाये रखने में वन अधिकारियों का पूर्ण सहयोग करें।
  • शिविर की सीखों से अपने विद्यालयों के अन्य छात्रों को भी अवगत करायें एवं उन्हें वन तथा वन्यप्राणियों के संरक्षण हेतु प्रेरित करें।

वन अधिकारी / कर्मचारी -

  • शिविर स्थल की सभी तैयारियाँ शिविर दिवस से पूर्व पूर्ण कर ली जावें।
  • शिविरों के आयोजन हेतु प्राप्त निर्देशों का पालन किया जावे।
  • शिविर में शामिल प्रत्येक प्रतिभागी की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करें।
  • विद्यार्थियों की प्रत्येक गतिविधि पर सजगता के साथ नजर रखें।
  • जंगल भ्रमण के दौरान, विद्यार्थियों की कतार के प्रारम्भ, अन्त एवं मध्य के स्थानों में रहकर उन्हें नियंत्रित करें।
  • कैम्प समाप्ति उपरान्त स्थल की साफ सफाई एवं कचरे का उचित निस्तारण करें।
  • परिवहन, वन भ्रमण, भोजन आदि में सुरक्षा एवं स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जावे।
  • कैम्प स्थल पर फर्स्ट एड किट, कूड़ादान, अस्थायी टॉयलेट आदि की व्यवस्था की जावे।
  • सभी अधिकारी अपने निर्धारित गणवेश में रहें।
  • इच्छुक छात्र-छात्राओं का नेचर वालेंटियर फोर्स के रूप में चयन करें।

मध्यप्रदेश ईकोपर्यटन - संक्षिप्त परिचय

The International Ecotourism Society द्वारा ईकोटूरिज्म को निम्नानुसार परिभाषित किया गया है:

"Responsible tourism to natural areas that conserves the environment and improves the wellbeing of local communities."

अर्थात "प्राकृतिक क्षेत्रों की उत्तरदायित्वपूर्ण पर्यटन जिससे मनोरंजन एवं ज्ञान वर्धन के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण एवं स्थानीय लोगों के कल्याण में सुधार होता है।"

ईकोपर्यटन के अंतर्गत -

  • उचित प्रबंधन एवं व्याख्या द्वारा पर्यटकों को प्रकृति एवं उसके घटकों के प्रति जिज्ञासा विकसित कर पर्यटन को और अधिक रूचिकर बनाना।
  • पर्यावरण एवं वन्यप्राणियों पर पर्यटन का प्रभाव न्यूनतम करना।
  • पर्यटकों में रूचि जागृत कर प्रकृति एवं सांस्कृतिक विरासतों के संरक्षण के प्रति उन्हें जागरूक करना।

ईकोपर्यटन के चार मूल स्तंभ -

  • वन क्षेत्रों का जिम्मेदारी पूर्ण भ्रमण
  • प्रकृति की व्याख्या
  • प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विरासतों का संरक्षण
  • स्थानीय समुदाय की सक्रिय भागीदारी एवं बेहतरी

जुलाई 2005 में गठित मध्यप्रदेश ईकोपर्यटन विकास बोर्ड मध्यप्रदेश के वन विभाग के अंतर्गत एक स्वशासी संस्था है। बोर्ड द्वारा ईकोपर्यटन को समुदाय की भागीदारी से वनसंरक्षण के उपाय के रुप में स्थापित किये जाने का प्रयास किया जा रहा है। बोर्ड राज्य के वन और पर्यटन विभाग के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य कर रहा है। इसके अलावा बोर्ड अन्य सहभागियों में आपसी समन्वय करने में एक महत्वपूर्ण कड़ी और सहयोगी के रूप में कार्य करने के लिये प्रयासरत है। इस व्यापक लक्ष्य को लेकर बोर्ड कुछ खास उद्देश्यों की पूर्ति करने में अपना ध्यान केन्द्रित करता है, जैसे – प्राकृतिक स्थलों पर पर्यटकों हेतु आधारभूत संरचनाओं का विकास, सेवाओं के मानक और मापदण्डों का विकास और उनका क्रियान्वयन, नीतियों और कानूनों की समीक्षा और विकास, सभी सहभागियों खासकर ग्रामीण समुदायों की भागीदारी और लाभ को सुनिश्चित करना और सहभागियों की दक्षता एवं कौशल उन्नयन को बढ़ावा देना।

बोर्ड वर्ष 2015-16 से लगातार अनभति शिविरों के माध्यम से स्कूलों के विद्यार्थियों को पर्यावरण संवेदी बनाने एवं उन्हें जागरूक कर पर्यावरण संरक्षण में उनकी सहभागिता प्राप्त करने हेतु प्रयासरत है। इस वर्ष अशासकीय विद्यालयों के विद्यार्थियों हेतु भी शिविरों का आयोजन विभाग द्वारा किया जा रहा है। प्रत्येक सप्ताहांत में अथवा अन्य दिवसों में पूर्व निर्धारित स्थलों पर स्कूलों के प्राधानाचार्य, स्थानीय वन अधिकारी के साथ समन्वय कर शिविर आयोजित कर सकेंगे। अशासकीय विद्यालयों के विद्यार्थियों को इस हेतु निर्धारित शुल्क का भुगतान करना होगा। विद्यार्थियों के आवागमन एवं शिविर के दौरान उनके खान-पान की व्यवस्था भी विद्यार्थी स्वयं अथवा उनके विद्यालय करेंगे। वन विभाग, वन क्षेत्र भ्रमण के दौरान अनुभवी प्रशिक्षकों की सेवायें एवं अन्य आवश्यक व्यवस्था करेगा। क्षेत्रीय वनमंडल इस हेतु नोडल एजेन्सी के रुप में कार्य करेंगे।

अनुभूति शिविरों में स्त्रोत व्यक्तियों के रूप में कार्य करने वाले मास्टरट्रेनर्स/रिसोर्सपसेन को शिविर आयोजन से पूर्व प्रति वर्ष विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाना है। स्त्रोत व्यक्ति के रुप में मास्टरट्रेनर्स के चयन का दायित्व संबंधित वन मण्डलों का वनमंडल अधिकारी इस हेतु सेवानिवृत्त वनाधिकारी, शिक्षक, नेचुरलिस्ट, पर्यावरणविद्, एन.जी.ओ. से संबंधित जानकार व्यक्तियों की पहचान कर उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करेंगे।

म.प्र. ईकोपर्यटन विकास बोर्ड, प्रदेश के वन क्षेत्रों एवं वन क्षेत्रों के बाहर मौजूद प्राकृतिक पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों की सुविधा हेतु अधोसंरचनाओं के विकास करने के दायित्व का निर्वहन कर रहा है। ईकोपर्यटन विकास बोर्ड द्वारा प्रदेश में ईकोपर्यटन हेतु 192 स्थल चयनित किये गये है जिसमें से 61 गंतव्य स्थलों पर अधोसंरचना का विकास किया गया है। इनमें से कई स्थलों पर पर्यटन प्रारंभ है। बोर्ड द्वारा इस वर्ष से ईकोपर्यटन स्थलों पर पर्यटकों को प्रकृति एवं इनके घटकों के परस्पर संबंध से रुबरु कराने के उद्येश्य से प्रकृति व्याख्या पथ (Nature Interpretation Trail) पर भ्रमण आयोजित किये जा रहे हैं। वन क्षेत्रों में प्रकति व्याख्या पथ (Nature Interpretation Trail) चिन्हित किये जा रहे हैं। ईकोपर्यटन विकासबोर्ड द्वारा प्रदेश के ईकोपर्यटन स्थलों का प्रबंधन, रखरखाव एवं संचालन निजी हाथों में सौपे जाने का निर्णय लेकर प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई है।



देश एवं प्रदेश की सामान्य जानकारी

विवरण

भारत

मध्यप्रदेश

कुल भौगोलिक क्षेत्रफल

3287797 वर्ग कि.मी.

308245 वर्ग कि.मी.

कुल वन क्षेत्र

751846 वर्ग कि.मी.

94689 वर्ग कि.मी.

कुल वन्यप्राणी अभ्यारण्य

566

24

कुल राष्ट्रीय उद्यान

104

11

कुल बायोस्फियर रिजर्व

18

2 पूर्ण 1 भाग

कुल कंजरवेसन रिजर्व 

57

_

कुल कम्युनिटी रिजर्व

04

 _

कुल टाइगर रिजर्व

52

6

राष्ट्रीय वन्य पशु

बाघ

बारहसिंगा

राष्ट्रीय पक्षी

मोर

दूधराज

राष्ट्रीय वृक्ष

बरगद

बरगद 


वन विभाग से संबंधित अन्य स्वायत्त संस्थायें

  • वन विकास निगम - प्रदेश के वन क्षेत्रों में मिश्रित वनों के स्थान पर एकल एवं उन्नत तथा मूल्यवान प्रजातियों का वृक्षारोपण।
  • म . प्र . राज्य लघु वनोपज संघ - प्रदेश के वनों में पायी जाने वाली लघुवनोपज, मुख्यतः तेन्दू पत्ता, सालबीज, हर्रा, महुआ एवं अन्य औषधियों के संग्रहण एवं विपणन में स्थानीय समुदाय को सहयोग कर उन्हे लाभन्वित करना।
  • राज्य वन अनुसंधान संस्थान - वनों के विकास एवं संरक्षण से संबंधित सभी प्रकार के अनुसंधान कार्य, यह संस्था जबलपुर में स्थित है।
  • राज्य जैव विविधता बोर्ड - प्रदेश में मौजद जैव विविधता के संरक्षण हेतु मैदानी स्तर पर इकाईयां गठित कर प्रभावी कदम उठाना ।
  • म . प्र . ईकोपर्यटन विकास बोर्ड - म.प्र. के वनों एवं वन्यप्राणियों के संरक्षण के प्रति आम जनता को जागरूक किये जाने के उददेश्य से वन क्षेत्रों में ईकोपर्यटन सुविधाएं विकसित कर स्थानीय समुदाय के सदस्यों के लिए रोजगार के नये अवसर विकसित करना एवं उन्हें इस हेतु प्रशिक्षित करना।
  • राज्य बाँस मिशन - प्रदेश में बाँस आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना ।

वानिकी गतिविधियों के संचालन हेतु विभाग की मुख्य शाखायें

  • विकास - वनों में पुनरूत्पादन बढ़ाने हेतु प्रयास करना, पौधारोपण एवं कार्य आयोजनाओं का क्रियान्वयन।
  • संरक्षण - वनों को क्षति पहुंचाने वाले विभिन्न कारकों अवैध कटाई, अवैध शिकार एवं अतिक्रमण आदि से सुरक्षा।
  • वन्यप्राणी - वन्य प्राणी संरक्षण एवं विकास के कार्य, वन्यप्राणी अभ्यारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों एवं टाइगर रिजर्व आदि का प्रबंधन कार्य।
  • अनुसंधान एवं विस्तार - प्रदेश के वनों में वृक्षारोपण हेतु उच्च तकनीक के पौधों की रोपणियों में तैयारी एवं वृक्षारोपण हेतु पौधों की आपूर्ति ।
  • कार्य आयोजना - प्रदेश के विभिन्न वनमंडलों में वन प्रबंधन हेत 10-20 वर्षीय कार्य आयोजना तैयार कराना।
  • उत्पादन - वनों से स्वीकृत कार्य आयोजना के अनुसार काष्ठ, बाँस जलाऊ लकड़ी एवं बल्लियों की कटाई करना। काटी गयी वनोपज का व्यवसायिक ढंग से निवर्तन।
  • संयुक्त वन प्रबंधन - प्रदेश के वनों के प्रबंधन में जन भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु आवश्यक कार्यवाही की जाना।
  • कैम्पा / भू प्रबंध - वन भूमि के गैर वानिकी प्रयोजनों हेतु अंतरण करने बावत् केन्द्रीय अधिनियम एवं दिशा निर्देशों का पालन कराना ।
  • सूचना प्रौद्योगिकी - नये संचार माध्यमों एवं नई वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग वन सुरक्षा, वन्यप्राणी सुरक्षा, प्रबंधन तथा मूल्यांकन एवं अनुश्रवण आदि में करना तथा इस हेतु क्षेत्रीय अधिकारियों का प्रशिक्षण आदि।
  • ग्रीन इंडिया मिशन - ग्रीन इंडिया की परिकल्पना को साकार करते हुये कार्बन अवशोषण संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देना ।


संयुक्त वन प्रबंध

  • राष्ट्रीय वन नीति 1988 में वनों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु जन सहयोग प्राप्त करने का प्रावधान।
  • राज्य शासन के संकल्प दिनांक01.1995 के अनुसार प्रदेश में वनों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु जनभागीदारी का निर्णय।
  • वनों की सीमा से 5 कि.मी. के बाहर तक के सभी ग्रामों में वन समितियों का गठन आवश्यक।
  • सघन वनों में वन सुरक्षा समिति, विरल वनों में ग्राम वन समिति एवं संरक्षित क्षेत्रों में ईको विकास समिति गठन का प्रावधान ।
  • समितियों के सदस्यों को वन सुरक्षा एवं वन संवर्धन के बदले में :-
  • रॉयल्टी मुक्त निस्तार
  • सफाई से प्राप्त वनोपज का प्रदाय (विदोहन व्यय काटकर)
  • बाँस पातन में लाभाँश का शतप्रतिशत
  • काष्ठ पातन में लाभाँश का 10 प्रतिशत
  • समिति द्वारा पंजीबद्ध कराए गये वन अपराध प्रकरणों में प्रशमन का 50 प्रतिशत
  • शहादत में वन कर्मी के सभी लाभ

प्रदेश में गठित वन समितियाँ :

क्र.

 वन समितियों का विवरण

संख्या

1.

ग्राम वन समिति

9784

2.

वन सुरक्षा समिति

4774

3.

 ईको विकास समिति

1051

योग

15609


पर्यावरण

हमारे चारों ओर के आवरण में जो कुछ भी सम्मिलित है, वह पर्यावरण के अन्तर्गत आता है।

भौतिक पर्यावरण-

यह प्राकृतिक अथवा प्रकृति द्वारा निर्मित कारक हैं, जिन पर प्रकति का सीधा नियंत्रण है। मुनष्य को इस पृथ्वी से हटा दिये जाने पर जिन क्रियाओं, प्रक्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं पर कोई अन्तर न आये. वह सभी भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत हैं। जैसे-जंगल, जीवजन्त, सर्य का प्रकाश, हवा, जल, मृदा, पहाड़, धरातल, खनिज, वनस्पति, ऋतु परिवर्तन आदि।

सांस्कृतिक पर्यावरण-

मनुष्य द्वारा निर्मित सभी कारक जिनका निर्माण मनुष्य ने किया है जैसे-भवन, परिवहन, मार्ग, शहर, उद्योग, संचार, व्यापार, बाँध, नहर, नदियों को जोड़ना आदि।

मानव निर्मित सांस्कृतिक पर्यावरण में अनियंत्रित वृद्धि के परिणाम ने पर्यावरण प्रदूषण को जन्मा है:-जैसे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं प्रकाश प्रदूषण । परिणाम, धुंध, अकाल वर्षा, ओजोन छिद्र, ग्रीन हाउस प्रभाव, शुद्ध पेयजल अनुपलब्धता, जहरीली सब्जियाँ, अनाज, एवं फलो के रूप में हमारे समक्ष हैं।

जीवन के सिद्धांत -

  • पर्यावरण हमारे जीवन का आधार है, जिसके सभी घटकों की पारस्परिक क्रिया, प्रतिक्रिया से ही जीवन धरती पर संभव हो पाता है।
  • प्रत्येक जीव की उत्पत्ति, विकास, अस्तित्व, विलुप्ति इसके पर्यावरण से सामंजस्य पर निर्भर है।
  • कोई भी जीव अन्य रहवासी जीवों की उपेक्षा कर लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता है।

पृथ्वी की उत्पत्ति - लगभग 450 करोड़ वर्ष

पूर्व प्रथम पौधा उत्पत्ति - लगभग 45 करोड़ वर्ष पूर्व

सघन वन उत्पत्ति - लगभग 25 करोड़ वर्ष पूर्व

प्रथम जन्तु उत्पत्ति - लगभग 16 करोड़ वर्ष पूर्व

आदि मानव उत्पत्ति - लगभग'1/2 करोड़ वष पूर्व

  • पृथ्वी पर सघन वन उत्पादन हेतु आवश्यक वातावरण तैयार करने में 425 करोड़ वर्ष का समय लगा है, वहीं प्रथम जन्तु उत्पादन हेतु 435 करोड़ वर्ष एव आदि मानव उत्पत्ति हेतु5 करोड़ वर्ष का समय लगा है।
  • इस पृथ्वी पर वनस्पतियां एवं अन्य जन्तु करोड़ों वर्षों से मौजूद हैं, पर मनुष्य नहीं । अतः मनुष्य का अस्तित्व बिना अन्य जन्तु एवं वनस्पतियों के संभव ही नहीं है।

वन हमारे मददगार

इस पृथ्वी पर जीवन संचालन हेतु हवा, जल, एवं भोजन अति आवश्यक है। इस पृथ्वी का प्रत्येक जन्तु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन तीनों जीवनोपयोगी आवश्यकताओं हेतु वनों पर निर्भर है। इस परिस्थितिकी तंत्र में वन एक मुख्य घटक है, जिसके द्वारा प्रदत्त सेवाएं ही हमारे जीवन को संभव बनाती हैं।

सभीजीवों के जीवन संचालक के रूप में -

  • कार्बन डाइआक्साइड को अवशोषित कर जीवन दायिनी ऑक्सीजन गैस की सतत उपलब्धता (यह कार्य इस पृथ्वी पर केवल वनस्पतियों द्वारा संभव है।)
  • अपने पाँच स्तरीय आवरण (बड़े वृक्ष, मध्यम वृक्ष, छोटे वृक्ष, झाड़ियाँ, जमीन सतह के शाकीय पौधे तथा घास) के द्वारा वर्षा की बूंदों के वेग में कमी कर वर्षा जल को जड़ों के सहारे भूमि के अन्दर संग्रहित करना तथा इसी जल को भूमि जल के रूप में उपलब्ध कराने, नदियों में सतत जल आपूर्ति रखने एवं हमारे बोर वेल हेतु पानी उपलब्ध कराना।
  • वनस्पति आच्छादित वनों द्वारा वर्षा काल में मिट्टी को जड़ों से पकड़े रहने के कारण भू-क्षरण एवं मिट्टी की हानि पर रोक (यही मिट्टी बह कर नदियों तथा जलाशयों की तलहटी में जमकर उनकी जल संग्रहण क्षमता कम कर देती है।)
  • वनों द्वारा वर्षा काल में सतही बहाव को कम कर जल के प्रवाह को अवरूद्ध कर बाढ़ पर नियंत्रण।
  • बादलों के संघनन की प्रक्रिया में वृद्धि कर वर्षा में सहायक।
  • सदैव जल उत्सर्जन की प्रक्रिया चालू रहने के कारण वातावरण में नमी बढ़ा कर तापमान पर नियंत्रण।
  • धूल, गैसीय प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं गर्म हवा से सुरक्षा।
  • पोषक तत्वों का पुनर्चक्रीकरण।

जीवनोपयोगी सामग्री प्रदाता के रूप में

  • सागौन, साल, बीजा, देवदार, धावड़ा एवं हल्दू आदि वृक्षों से महत्वपूर्ण इमारती लकड़ी की प्राप्ति।
  • ग्राम वासियों के ईंधन की पूर्ति हेतु जलाऊ लकड़ी के महत्वपूर्ण श्रोत।
  • कागज, माचिस, प्लाईबुड, हार्डबोर्ड, पैकिंग, खिलौना उद्योग, फर्नीचर आदि के लिये कच्चे माल का प्रदाता।
  • रस्सी एवं कपड़ा वनाने हेतु तन्तु एवं रेशे का उत्पादन।
  • दैनिक उपयोग हेतु बाँस एवं घास की उपलब्धता।
  • अनेकों सुगन्धित तेलों का उत्पादन।
  • उद्योगों हेतु उपयोगी तैलीय बीज का उत्पादन।
  • चमड़ा पकाने एवं रंगने हेतु आवश्यक सामग्री का उत्पादन।
  • गोंद एवं रेजिन एवं अनेकों एवं मसालों का उत्पादन।
  • औषधियाँ एवं कीटनाशकों का प्रदाता।
  • गृह कार्य हेतु विभिन्न प्रकार की पत्तियों एवं फलों की उपलब्धता।
  • लाख, रेशम, कोसा आदि का उत्पादन।
  • मवेशियों हेतु चारागाह।

देश के विकास में सहायक

  • शासकीय राजस्व की प्राप्ति।
  • वृहद रोजगार उत्पादन।
  • ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में सुधार।

शैक्षणिक एवं मनोरंजन के रूप में -

  • वृहद प्राकृतिक प्रयोगशाला।
  • मानव के आकर्षण एवं मनोरंजन के केन्द्र।
  • प्राकृतिक चिकित्सा स्थल के रुप में मान्य ।

पर्यावरण संरक्षण में हमारी भूमिका

पर्यावरण हेतु अपना योगदान देने के लिये हमें अलग से कोई विशेष प्रयास करने की आवश्कता नहीं है। हम अपने घर से ही अपनी आदतों में छोटे-मोटे परिवर्तन करके इसमें अपना योगदान दे सकते है।

 बढती जनसंख्या एवं उद्योग धन्धों में जल की अधिकाधिक खपत एवं दूषित जल का प्राकृतिक जल स्त्रोतों में विवेकहीन निवर्तन के कारण साफ पेयजल की दिनों दिन कमी होती जा रही है। हम संकल्प लें कि जल संरक्षण के लिये आज से ही निम्न प्रयास करेंगे:-

  • जल के प्रयोग में मितव्ययता के समुचित उपाय।
  • दैनिक उपयोग में निकलने वाले जल का घर में लगे हुये पौधों अथवा बागवानी में उपयोग।
  • घर में नलों एवं पाइप लाइन के लीकेज की तुरंत मरम्मत ।
  • वर्षा जल के संरक्षण हेतु वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम की स्थापना की अनिवार्यता।

ऊर्जा संरक्षण हेतु भी निम्न उपाय करेंगे -

  • अनावश्यक वाहन यात्रा से बच कर, छोटी दूरी पैदल तय करना।
  • वाहन शेयरिंग की आदत डालना।
  • यथा संभव सार्वजनिक यातायात का उपयोग।
  • ईंधन खपत कम करने हेतु वाहनों की नियमित जाँच एवं टायरों में हवा का सही दवाब।
  • उपयोग न होने पर बिजली के स्विच बंद रखना एवं फाइव स्टार रेटिंग के विद्युत उपकरणों का उपयोग।
  • प्रकाश हेतु एल.ई.डी. उपकरणों का उपयोग। सौर ऊर्जा को प्राथमिकता।
  • ईंधन उपयोग में मितव्ययता।
  • कागज का पूर्ण सदुपयोग।
  • स्थानीय उत्पाद एवं स्थानीय बाजार को प्राथमिकता।
  • सामग्री क्रय हेतु पॉलीथीन बैग के स्थान पर कपड़े के थैलों का प्रयोग।
  • आवश्यकता से अधिक फालतू सामग्री के क्रय पर रोक ।
  • उपकरणों एवं वस्तुओं की पुनः मरम्मत करा कर उपयोग पर जोर।
  • लक्षित उपयोग के बाद संसाधनों का पुनर्चक्रण (Recycling) |
  • वृक्षों का रोपण एवं संरक्षण


प्रदेश की मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ

सागौन ( हरा सोना ):

  • प्रदेश में बहुतायत रूप में पाया जाने वाला एक से दो फुट बड़े एवं खुरदरे पत्तों वाला बहुमूल्य वृक्ष।
  • काष्ठ-भवन निर्माण एवं फर्नीचर हेतु अति उपयुक्त ।
  • पुष्प एवं बीज-अनेक शारीरिक व्याधियों में लाभकारी।

साल :

  • चिकनी पत्तियों वाला सदाबहार वृक्ष ।
  • काष्ठ-अत्यन्त मजबूत चौखट में उपयोग, पत्तों का उपयोग पत्तल बनाने में।
  • कंकरीट के प्रयोग से पहले रेलवे स्लीपर में काष्ठ का उपयोग ।
  • बीज का उपयोग वनस्पति घी , तेल तथा साबुन बनाने में, राल का उपयोग सुगंध उत्पादों एवं मल्हम बनाने में।

साजाः

  • लम्बा, मगर की खाल जैसी आकृति की छाल वाला सागौन का प्रमुख सहयोगी वृक्ष।
  • काष्ठ का उपयोग कृषि उपकरण एवं भवन निर्माण में।
  • काष्ठ एवं छाल का चूर्ण मधुमेह में उपयोगी।

बीजाः

  • अण्डाकार चमकीली पत्तियों वाला लम्बा बड़ा वृक्ष।
  • काष्ठ से चमकीले रक्त वर्ण द्रव का रिसाव, काष्ठ का घरेलू उपयोग।
  • पत्तों का रस त्वचा रोग में एवं काष्ठ का रस मधुमेह में अति लाभकारी।

हल्दूः

  • छतरीनुमा कैनोपी, हृदयाकार पत्तियों एवं भूमि के समानान्तर शाखाओं का बड़ा वृक्ष।
  • काष्ठ पीली मजबूत कठोर, फर्नीचर, मकान एवं कृषि उपकरणों में उपयोग।

धावड़ाः

  • मध्यम आकार का भूरी सफेद छाल उभरते हुए गोल छिलके वाला वृक्ष ।
  • तने से खाने योग्य गोंद का स्त्राव, काष्ठ मजबूत, पत्तियों का उपयोग चमड़ा पकाने में।

अंजन :

  • छोटी दो भाग में विभाजित पत्ती वाला, मध्यम आकार का वृक्ष ।
  • काष्ठ अति कठोर, कृषि यंत्रों में उपयोग, पत्तियों का पशु चारे में उपयोग।

सिस्सू / शीशमः

  • हल्के छत्र, चमकीली छोटी पत्तियों वाला मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ कठोर मजबूत एवं टिकाऊ फर्नीचर में उपयोग।
  • पत्तों एवं काष्ठ का रस चर्मरोग, कुष्ठ एवं कृमि रोग में उपयोगी।

नीमः

  • आबादी में अधिकतर पाया जाने वाला वृक्ष।
  • काष्ठ भारी एवं कठोर, घरेलू कार्यों में उपयोग।
  • पत्तियाँ, छाल, पके हुए फल एवं बीज का तेल, अनेक रोगों विशेषकर चर्मरोग एवं कीट नाशक के रूप में मान्य।

पलाशः

  • अनियमित आकार के तने, हल्की भूरी छाल एवं तीन पत्तियों वाला वृक्ष।
  • इसकी, छिवला, ढाक, टेसू, खकरा एवं किंशुक आदि नामों से भी पहचान।
  • पुष्पों के सिन्दूरी लाल रंगों के कारण इसका नाम "फ्लेम आफ फॉरेस्ट" भी।
  • पुष्प का उपयोग रंग में, पत्ती-दोना पत्तल में, जड़-रस्सी बनाने में उपयोगी।
  • गोंद कमरकस नाम से विख्यात ।

बेलः

  • भूरी छाल, काँटेदार शाखाओं एवं त्रिपत्तीय, मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ का उपयोग कृषि औजार एवं घरेलू उपकरणों में।
  • पत्तियों का उपयोग भगवान शिव की पूजा में।
  • फल-कुपाचन में, गूदा-पीलिया में, पत्ते का रस-मधुमेह एवं ज्वर में उपयोगी।

तेंदू :

  • काली, जले हुए का आभास देने वाली छाल का मध्यम आकार का वृक्ष ।
  • काष्ठ काले रंग का अत्यन्त कठोर एवं मजबूत।
  • फल खाने में एवं पत्तियों का उपयोग बीड़ी बनाने में।
  • तेंदू पत्ता प्रदेश की आर्थिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण लघु वनोपज ।

महुआ:

  • धूसर छाल, फैली हुयी शाखायें एवं गोलाकार छत्र वाला वृक्ष।
  • काष्ठ मजबूत, कठोर घरेलू एवं जलाऊ में उपयोग।
  • फूल का उपयोग सिरका एवं शराब में।
  • पत्तियों का उपयोग दोना एवं पत्तल बनाने में तथा बीज के तेल का उपयोग रौशनी करने एवं साबुन बनाने में।

जामुनः

  • भूरी चिकनी छाल, चमकदार हरी पत्तियों एवं विशाल छत्र वाला वृक्ष।
  • काष्ठ जल में सड़ता नहीं है।
  • फल-सिरका एवं उदर रोग, बीज का चूर्ण मधुमेह में अति लाभदायक।

अचार :

  • गहरी भूरी काली, चौकोर छोटे खाने की, छाल वाला छोटा वृक्ष।
  • फल खाने में उपयोग, बीज की गिरी चिरौंजी सूखा मेवा के रूप में विख्यात ।

करंजः

  • तीन से पांच पत्ती (संयुक्त पत्तियों) युक्त गहरे एवं हरे रंग की पत्ती वाला मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ मजबूत, उपयोग घरेलू कार्यों में।
  • बीज से निकाले तेल का उपयोग साबुन बनाने में।
  • पुष्प-मधुमेह, तेल-चर्मरोग, घाव उपचार, बवासीर एवं वात व्याधि में, पत्ते-दस्त रोधी एवं अपच में उपयोग।

कुसुमः

  • चार से छह-पर्णक वाली पत्तियाँ युक्त, गोलाकार छत्र वाला मध्यम आकार का वृक्ष।
  • पत्तियों की नयी कोपलें रक्त वर्णी (जो बाद में हरी हो जाती है), गर्मियों में पत्तियों से परिपूर्ण।
  • छाल का उपयोग टेनिन, कुष्ठ तथा चर्म रोगों के निदान में।

अमलतासः

  • भूरी छाल एवं खुले छत्र वाला, पीले झाड़-फानूस की आकृति के पुष्पों वाला मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ कठोर एवं टिकाऊ, घरेलू कार्यों में उपयोग।
  • फल का गूदा, अपच, कृमि नाशक, पत्र रस, चर्मरोग एवं चेहरे के लकवा में लाभकारी।

बबूल :

  • काँटेदार शाखायें तिरछे छत्र वाला मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ बहुत कड़ा एवं भारी, कृषि उपकरणों में उपयोग, महत्वपूर्ण जलाऊ।
  • गोंद मुख रोगों एवं अतिसार में, पत्ररस-रक्त स्राव में, छाल दंत व्याधि में उपयोगी।
  • काँटेदार टहनियाँ बागड़ के रूप में भी उपयोगी।

खैरः

  • हल्के छत्र काली छाल, काँटेदार शाखाओं वाला मध्यम आकार का वृक्ष ।
  • काष्ठ उत्तम एवं अत्यधिक मजबूत सार काष्ठ से कत्था निर्माण।
  • पुष्प चूर्ण - रक्तपित्त में, कत्था - चर्मरोग, दन्तविकार में, छाल-सूखी खांसी में उपयोगी।

अर्जुनः

  • बड़े छत्र चिकना तना, झूलती मजबूत शाखाओं वाला नदी/नालों के किनारे उगने वाला वृक्ष।
  • काष्ठ अति कठोर बैलगाड़ी, नाव बनाने में उपयोगी।
  • छाल चूर्ण - उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, घाव एवं कुष्ठ रोग में उपयोगी।

हर्राः

  • उभरते छिलकों वाली गहरी भूरी छालयुक्त मध्यम आकार का वृक्ष।
  • फल-त्रिफला चूर्ण में, चूर्ण-मुख रोग, कब्ज एवं गठिया में उपयोगी।

बहेड़ाः

  • बड़े डंठलवाली पत्तियाँ, तने पर उभार, छाल राख के रंग की, बड़ा वृक्ष ।
  • फल चूर्ण-त्रिफला में, खाँसी श्वाँस, नेत्र रोग एवं बाल वर्धक के रूप में उपयोगी।

आँवला :

  • नया तना चिकना, पुराने तने पर अनियमित उभरते छिलके, वाला मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ का उपयोग जलाऊ में।
  • फल का गूदा-सिरदर्द, बवासीर तथा फल का चूर्ण-मधुमेह एवं पित्त में उपयोगी।

घिरिया / भिर्राः

  • बेलनाकार तना, पीली भूरी मोटी कार्क जैसी छाल वाला, मध्यम आकार का वृक्ष।
  • काष्ठ बैलगाड़ी एवं कृषि उपकरण में उपयोग ।
  • अग्निरोधी वृक्ष ।

दूधीः

  • हल्का भूरा तना, तने से चिपचिपे पदार्थ का स्त्राव वाला वृक्ष।
  • पत्तियाँ लम्बी एवं दो भागों में बंटी, फलियाँ अन्त में जुड़ी हुयी।
  • काष्ठ का उपयोग बेलन, खिलौना आदि निर्माण में।

सेंधा / लेण्डियाः

  • लम्बे उभरते हुये छिलके वाला बेलनाकार तना, भूरी छाल का वृक्ष ।
  • काष्ठ का उपयोग जलाऊ एवं घरेलू कार्यों में।

सेमल :

  • लम्बा एवं बेलनाकार तना, शंकु आकार के काँटेयुक्त छाल वाला वृक्ष ।
  • काष्ठ हल्की मुलायम, माचिस एवं पैकिंग मटेरियल में उपयोग।
  • फल, पुष्प, छाल एवं गोंद - अनेक रोगों में लाभकारी, फल का रेशा - रजाई गद्दों में रूई के रूप में उपयोगी।

कुल्लू :

  • सफेद चिकनी, निकलते हुये कागजी शल्क समान छाल युक्त, मध्यम आकार का वृक्ष।
  • अनियमित आड़ी तिरछी शाखायें तथा चट्टानी क्षेत्रों में पाये जाने वाला संकटग्रस्त वृक्ष ।
  • गोंद, गम कतीरा के नाम से विख्यात. उपयोग खाने में।

बरगद

  • सैकड़ों चिड़ियों एवं अन्य जीवों का आश्रय/प्रकृति का महत्वपूर्ण पेड़।
  • फैली तथा भूमि की ओर झुकी शाखाओं, बड़े एवं मोटे पत्तों तथा शाखाओं से निकलती वट-जटा (हवाई स्तम्भ मूल) धारी, अति विशाल वृक्ष।
  • छाल-मधुमेह में, कलियाँ-दस्त में, वट-जटा, वमन रोधी तथा दुग्ध नाशक है। (कई बरगद वृक्षों का फैलाव, पाँच एकड़ तक भी है।)

चन्दनः

  • सदाबहार अर्द्ध परजीवी (Initial root Parasite), मध्यम आकार का पेड़।
  • पत्ते अभिमुखी अण्डाकार, पुष्प एवं फल बैगनी तथा छाल काली।
  • काष्ठ-सुगंधित, तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में।


औषधीय पौधे

सर्पगंधाः

  • चमकदार हरे नुकीले पत्ते, तोड़ने पर दूध जैसा पदार्थ स्रवित, झाड़ी नुमा पौधा।
  • जड़ का उपयोग, उच्च रक्त चाप, अनिद्रा, मानसिक रोग में औषधि के रूप में।

अश्वगंधाः

  • एक वर्षीय, औसत ऊँचाई एक मीटर का शाकीय पौधा, पत्तों एवं जड़ों से अवश्मूत्र की गंध।
  • जड़ का उपयोग अनेक रोगों की औषधि के रूप में।

बचः

  • मोटी पत्तियों धान के स्वरूप वाला नमी एवं दलदली क्षेत्र में उगनेवाला।
  • जड़ में पाये जाने वाला तेल, शक्ति वर्धक, कफ, अतिसार, मूत्र एवं चर्मरोग में लाभकारी।

अपामार्ग / चिरचिटा :

  • कपडों में चिपक जाने वाले कटीले फल, रोम युक्त पत्तियों वाला पौधा ।
  • पत्तियों एवं शाखाओं का रस, दश्त, पेचिस, दुर्बलता, सर्प, बिच्छू विष में लाभकारी।

कालमेघः

  • चमकीली पत्तियों, मिर्च के समान मध्यम आकार का शाकीय पौधा।
  • पंचाँग चूर्ण- रक्त विकार, मलेरिया ज्वर, जीर्ण ज्वर, चर्म रोग में लाभकारी।

सफेद मूसली :

  • वर्षाकाल में भूमि से सीधे निकलने वाली पत्तियों का पौधा।
  • जड़ों का चूर्ण क्षय रोग, नेत्र रोग, वात पित्त रोग में उपयोगी एवं शक्तिवर्धक।

काली हल्दी :

  • चौड़ी एवं बैगनी मध्य शिरा वाली पत्तियाँ।
  • कन्द चूर्ण-चोट, घाव एवं श्वाँस रोगों में लाभकारी।

घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ):

  • माँसल, भालेदार, किनारों पर काँटें युक्त पत्तियों का पौधा।
  • पत्र रस-सौंदर्य प्रसाधन, गूदा-उदर शूल, रक्त शोधन यकृत विकार, बल वर्धक।

शतावर :

  • पतली काँटेदार शाखायें, सुई के समान पत्तियों वाली बेल ।
  • जड़- नपुंसकता, अतिसार, स्त्रीरोग, रक्त प्रदर में उपयोगी।

गुड़मारः

  • विपरीत उगनेवानी गोल पत्तियों युक्त रोंएदार लता।
  • पत्तियों एवं जड़ का चूर्ण, मधुमेह, कफनाशक, सूजन सर्पदंश में उपयोगी।

कलिहारीः

  • भालाकार नुकीले घुमावदार आकर्षक फूल वाली बहुवर्षीय लता।
  • कन्द, फल एवं बीज- कण्ठमाल, गठिया, वात, कुष्ठ तथा गर्भ पातन में लाभकारी।

केयोकन्दः

  • बड़ी, भाले के आकार की घुमावदार सीढ़ियों जैसी पत्तियों वाला नम क्षेत्रों में उगने वाला पौधा।
  • कन्द – पेट रोगों के उपचार में ।

तुलसी :

  • प्रत्येक घर में पाये जाने वाला धार्मिक आस्था वाला पौधा।
  • पत्र रस-कफ, हृदय रोग, उल्टी, एलर्जी, मधुमेह आदि में लाभकारी।

किवाँचः

  • हरे बेलनाकार रोयें युक्त तने, रोंयेदार फलियों वाली लता।
  • बीज का चूर्ण-दुर्लबता, क्षय रोग, श्वाँस रोग में लाभकारी।

बायविडंगः

  • काले फलों, गोल झालाकार पत्तियों वाला, झाड़ीनुमा पौधा ।
  • फल - अल्सर, फोड़े, दस्त एवं गर्भाशय व्याधि में लाभकारी।

भटकटेरी :

  • अनियमित आकार की पत्तियों, पीले काँटों अनेक शाखाओं वाला छोटा पौधा।
  • फलों का उपयोग, अस्थमा, गले की खराश में, पत्तियों का लेप-दर्द निवारक।

मरोड़फली / ऐंठी :

  • ऐंठी हुयी फलियों वाला झाड़ी नुमा बहु वर्षीय पौधा।
  • छाल एवं फल का उपयोग, मरोड़ अतिसार अन्य पेट के रोगों में लाभकारी।

हरसिंगार :

  • खुरदुरी पत्तियों, चौकोर लटकती हुयी शाखाओं भूरे तने वाली झाड़ी।
  • पुष्प सुगंधित, पत्र रस- यकृत रोग, प्लीहा वृद्धि, अस्थिरोग में उपयोगी।

भुई आँवला :

  • छोटी पत्तियों, सीधी पतली शाखाओं वाला, छोटा एक वर्षीय पौधा, फल हरे आँवले जैसे।
  • पंचाँग-रक्त शोधक, पीलिया ज्वर, मलेरिया, चर्म रोग आदि रोगों में उपयोगी।

निर्गुण्डी :

  • सफेद रोम वर्ण, संयुक्त रोंयेदार एवं लम्बे पत्ते वाला झाड़ीदार पौधा।
  • जड़, पत्ती एवं बीज-आम वात, ज्वर, शूल, अपचन एवं क्षय में लाभकारी।

गिलोयः

  • लम्बे डंठल वाले हृदयकार पत्ते, सफेद, खाच युक्त छालवाली विशाल लता।
  • तने का उपयोग रोग प्रतिरोधक क्षमता वृद्धि, ज्वर, प्रमेह, श्वाँस, कुष्ठ, वातरोग एवं मधुमेह में।

हड़जोड़ :

  • डंठल के आधार पर तन्तु संरचना कोंणीय आकार के तने युक्त लता।
  • तना-अस्थिभंग, सन्धिवात, उदर रोग, पाचन विकार में लाभकारी।

ब्राम्ही :

  • हल्के बैगनी पुष्पों युक्त, पानी एवं नमी में उगने वाले पौधा ।
  • पंचाग- वात कफ, ज्वर, रक्त विकार, सर्दी-खाँसी एवं स्मृति वर्धक के रूप में उपयोगी।

वन्यप्राणी - संरक्षित क्षेत्र

  • वन्यप्राणी अर्थात वन्यप्राणी (संरक्षण) अधिनियम 1972 की अनुसूची । से IV में दर्शित सभी प्राणी।
  • प्राणियों से तात्पर्य, स्तनपायी, पक्षी, रेंगने वाले, उभयचर, जलीय प्राणी, कीट पतंगे उनके बच्चे एवं अण्डे।
  • वन्यप्राणियों की पूजा, आदि काल से सिंह, बाघ, गरूड़, हंष, मूषक आदि देवताओं के वाहन के रूप में।
  • पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाने में वन्यप्राणियों की भूमिका अति महत्वपूर्ण।
  • वनों में वनस्पतियों की अनियंत्रित वृद्धि पर शाकाहारी वन्यप्राणियों द्वारा भोजन में उपयोग होने के कारण नियंत्रण।
  • शाकाहारी वन्य प्राणियों की वृद्धि पर माँसाहारियों द्वारा नियंत्रण।
  • सूक्ष्म जीवी अपघटकों द्वारा मृत उपभोक्ताओं का भौतिक तत्वों में अपघटन कर ऊर्जा का पुनः वायुमण्डल में विलीनीकरण।
  • सर्प एवं पक्षियों द्वारा हानिकारक चूहों एवं कीटों की संख्या पर नियंत्रण द्वारा मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका।
  • वन्यप्राणी अवलोकन मनोरंजन का एक महत्वपूर्ण अवयव।

राष्ट्रीय उद्यान -

ऐसे क्षेत्र जो परिस्थितिकीय, जैव भौगोलिक, वन्यप्राणी, वानस्पतिक प्राकृतिक या प्राणी विज्ञान की दृष्टि से समृद्ध हों अथवा पूर्व से अभ्यारण्य घोषित हों, उन्हें राज्य शासन, वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम की धारा 35 के प्रावधानों के अंतर्गत राष्ट्रीय उद्यान अधिसूचित कर सकता है।

अभयारण्य -

ऐसे क्षेत्र जो परिस्थितिकीय, जैव भौगोलिक, वन्यप्राणी, वानस्पतिक प्राकृतिक या प्राणी विज्ञान की दृष्टि से समृद्ध हों, उन्हें राज्य शासन, वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम की धारा 26 ए के प्रावधानों के अंतर्गत अभयारण्य घोषित कर सकता है।

कंसर्वेसन रिजर्व -

ऐसी राज्य शासन की भूमि जो राष्ट्रीय उद्यान या अभ्यारण्यों के नजदीक हो तथा वन्यप्राणियों एवं वनस्पति प्रजातियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो, उसे स्थानीय समुदायों की सहमति से राज्य शासन, वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम की धारा 36 के प्रावधानों के अंतर्गत कंसर्वेसन रिजर्व घोषित कर सकता है।

कम्युनिटीरिजर्व -

किसी समुदाय या व्यक्ति की निजी भूमि को, वन्यजीवों, वनस्पति प्रजातियों तथा स्थानीय पारम्परिक मूल्यों के संरक्षण हेतु भूमि स्वामी के आवेदन करने पर राज्य शासन ऐसे क्षेत्रों को वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम की धारा 36 के अंतर्गत कम्युनिटी रिजर्व घोषित कर सकता है।

टाईगर रिजर्व -

किसी बाघ समृद्ध राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण्य के क्षेत्र, भारत शासन की संस्था राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की अनुशंसा पर, राज्य सरकार द्वारा वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम की धारा 38 के अतंर्गत टाइगर रिजर्व अधिसूचित किये जा सकते है। जिसके प्रबंधन हेतु राशि केन्द्र शासन से प्रदाय की जाती है।

बायोस्फियर रिजर्व-

वानस्पतिक एवं जैव विविधता को संरक्षित एवं पोषित करने के उद्देश्य से विशेष पारिस्थितिकीय तंत्र के रूप में स्थापित क्षेत्र बायोस्फियर रिजर्व कहलाते है।

प्रदेश के बायोस्फियर रिजर्व

क्र

बायोस्फियर का नाम

सम्मिलित जिला

1.

पचमढ़ी

होशंगाबाद छिंदवाड़ा एवं बैतूल

2.

अमरकंटक (भाग)

अनूपपुर, डिडोंरी

3.

पन्ना

पन्ना छतरपुर


मध्यप्रदेश के टाईगर रिजर्व

क्र.

नाम

जिला

कोर क्षेत्र

बफर क्षेत्र

योग

(वर्ग कि.मी.)

सम्मिलित संरक्षित क्षेत्र

1

कान्हा

मण्डला बालाघाट

917.430

1134.319

2051.748

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान एवं फेन अभयारण्य

2

बाँधवगढ

उमरिया

कटनी

716.903

820.035

1536.938

बाँधवगढ राष्ट्रीय उद्यान एवं पनपथा अभयारण्य

3

सतपुड़ा

होशंगाबाद

1339.264

794.043

2133.307

सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, बोरी एवं पचमढी अभयारण्य

4

पेंच

सिवनी छिंदवाड़ा

411.300

768.302

1179.632

पेंच राष्ट्रीय छिंदवाड़ा

उद्यान एवं पेंच मोगली अभयारण्य

5

पन्ना

पन्ना छतरपुर

576.130

1021.972

1598.102

पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं गंगउ अभयारण्य

6

संजय

 सीधी

812.581

861.931

1674.512

संजय राष्ट्रीय

उद्यान एवं दुबरी अभयारण्य


मध्यप्रदेश के राष्ट्रीय उद्यान

क्र.

नाम

जिला

क्षेत्रफल

(वर्ग कि.मी.)

राष्ट्रीय उद्यान की विशिष्टता

1

कान्हा

 मण्डला

बालाघाट

941.793

बाघ एवं बारह सिंघा प्राणी

2

बाँधवगढ़

उमरिया

448.842

सर्वाधिक बाघ घनत्व

3

सतपुड़ा

 होशंगाबाद

528.729

देश का प्रथम आरक्षित वन एवं प्रदेश का सर्वोच्च शिखर

4

पेंच

सिवनी, छिंदवाड़ा

292.857

उत्कृष्ट प्रे बेस स्थल

5

पन्ना

 पन्ना, छतरपुर

542.660

 बाघ पुनस्र्थापना, विन्ध्य लैण्डस्केप

6

संजय

सीधी

464.643

सफेद बाघ जनक स्थल

7

माधव

शिवपुरी

375.230

सुन्दर झील एवं शिकारगाह

8

वन विहार

 भोपाल

4.452

प्रदेश का नगरीय वन्यप्राणी संरक्षित क्षेत्र

9

जीवाश्म

 डिण्डोरी

0.270

वानस्पतिक जीवाश्म स्थल

10

डायनॉसॉर

धार

0.897

डायनॉसॉर जीवाश्म स्थल

11

कूनो

 श्योपुर

748.761

सिंह एवं चीता पुनर्वास हेतु चयनित स्थल


मध्यप्रदेश के अभयारण्य एवं उनका क्षेत्रफल

क्र.

अभयारण्य का नाम

जिला

क्षेत्रफल

(वर्ग कि.मी.)

अभयारण्य की विशिष्टता

1

खिवनी

देवास

132.778

पश्चिम म.प्र. का महत्वपूर्ण संरक्षित क्षेत्र

2

पेंच मोगली

सिवनी

118.473

उत्कृष्ट प्रे बेस

3

रालामण्डल

इन्दौर

2.345

नगरीय संरक्षित क्षेत्र

4

वीरांगना दुर्गावती

दमोह

23.973

नैसर्गिक लैण्ड स्केप

5

बोरी

होशंगाबाद

485.715

देश का पहला आरक्षित वन

6

गाँधी सागर

मन्दसौर

368.620

सवाना वन

7

फेन

मण्डला

110.704

उत्कृष्टतम वन्यप्राणी

8

बगदरा

सिंगरौली

478.000

कृष्ण मृग स्थली

9

संजय दुबरी

सीधी

347.938

सफेद बाघ प्राप्ति स्थल

10

गंगऊ

पन्ना

78.530

विन्ध्यन लैण्ड स्केप

11

घाटीगाँव

ग्वालियर

510.640

सोन चिड़िया स्थली

12

करैरा

शिवपुरी

202.210

सोन चिड़िया स्थली

13

केन घड़ियाल

पन्ना

45.200

घड़ियाल प्रजाति स्थली

14

नरसिंहगढ़

राजगढ़

57.190

चिडीखोह झील

15

राष्ट्रीय चम्बल

मुरैना

435.000

घड़ियाल प्रजाति स्थली

16

नौरादेही

दमोह

सागर

1197.040

प्रदेश का सबसे बड़ा सागर

17

ओरछा

टीकमगढ़

44.914

करधई एवं सागौन ईको

टोन

18

पचमढ़ी

होशंगाबाद

491.632

मध्यभारत का सर्वोच्च

उँचाई वाला स्थल

19

पनपथा

उमरिया

245.842

सर्वाधिक बाघ घनत्व

20

सैलाना

रतलाम

12.965

खरमौर पक्षी स्थली

21

रातापानी

रायसेन

910.638

रॉक शेल्टर, पेन्टिंग

22

सरदारपुर

धार

348.121

खरमौर पक्षी स्थली

23

सिंघौरी

रायसेन

312.036

चौकीगढ़ किला एवं बारना डैम

24

सोन घड़ियाल

सीधी

83.684

घड़ियाल प्रजाति स्थली



मुख्य वन्यप्राणी

पहचान - स्तनधारी प्राणी

बाघ / टाईगर ( बिल्ली प्रजाति ):

  • 2018 की वन्यप्राणी गणना आंकलन में मध्यप्रदेश में सर्वाधिक 526 बाघ की मौजूदगी के कारण राज्य को टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त।
  • वर्ष 2018 के किये गये आंकलन अनुसार भारत के वनों में 2967 बाघ मौजूद।
  • बिल्ली परिवार का सबसे बड़ा ताकतवर एवं आकर्षक सदस्य।
  • बाघ की उत्पत्ति, साईबेरिया ।
  • विश्व में बाघों की 9 उप प्रजातियाँ जिनमें से 4 विलप्त।
  • भारत में पाये जाने वाला बाघ, रॉयल बंगाल टाइगर (भारत का राष्ट्रीय वन्यप्राणी)| भारत के अलावा यह उप प्रजाति, नेपाल भूटान एवं बंगलादेश में भी मौजूद ।
  • बाघ के शरीर पर पायी जाने वाली काली धारियों एवं चेहरे के काले चिन्ह प्रत्येक बाघ में अलग-अलग (जैसे दो मानव के अंगुली के निशान एक जैसे नहीं होते हैं)।
  • बाघ का प्राकृतावास में औसत जीवनकाल 13-15 वर्ष ।
  • बाघ घात लगाकर हमला करने वाला सबसे बड़ा अद्भुत शिकारी।
  • बाघ में शिकार हेतु अनुकूलनता, आकस्मिकता, संवेदनशीलता, गोपनीयता, एकाग्रता, धैर्य एवं संयम, पीछा करने की दृढ़ता एवं मजबूत पकड़ आदि गुणों का उत्कृष्ट समावेश।
  • बाघ के आयुध भण्डार में मजबूत दाँत एवं जबड़े, बड़े एवं तीखे कनाईन, पन नाखून, मजबूत अगले पंजे एवं मोटी गर्दन का समावेश भी महत्वपूर्ण।
  • मादा बाघ द्वारा लगभग 100 दिनों की गर्भावस्था के उपरान्त 2-5 शावकों का जन्म
  • माँ द्वारा शावकों को 18-24 माह तक का प्रशिक्षण, तदोपरान्त शावक पृथक।
  • प्रत्येक बाघ की टेरीटरी (रहवास क्षेत्र) पृथक-पृथक।
  • एक नर बाघ के क्षेत्र में 3-5 मादा बाघ के उपक्षेत्र मौजूद ।
  • सफेद बाघ में म्यूटेशन के कारण त्वचा के रंग हेतु उत्तरदायी मेलानिन पिगमेंट का अभाव, जिस कारण त्वचा का रंग सफेद एवं आँखे नीली।
  • प्रथम सफेद बाघ सीधी जिले में महाराज रीवा द्वारा 27 मई 1951 को पकड़ा, जिसे मोहन नाम दिया।
  • जंगल में बाघ के अनेकों साक्ष्य चिन्ह जैसे गारा, विष्ठा, पदचिन्ह, स्क्रैच, स्क्रेप आदि की मौजूदगी से भी बाघ की उपस्थिति की पुष्टि।
  • बाघ द्वारा अपने शिकार को सामान्यतः पुढे से खाना आदत में शुमार एक विशेष गुण।

गुलबाघ / तेंदुआ / पैंथर ( बिल्ली प्रजाति ):

  • बिल्ली प्रजाति में भारत में बाघ एवं सिंह के बाद तीसरा प्रमुख बड़ा वन्यप्राणी।
  • शरीर पर काले खोखले एवं खुले धब्बे (रोजेट) विद्यमान।
  • शिकार को पकड़कर दूसरे परभक्षियों से बचाने के लिये वृक्ष पर रखने की आदत।
  • शिकार का सर्वप्रथम पेट फाड़कर खाने की आदत।
  • अनुकूलन क्षमता के कारण लगभग पूरे भारत में विस्तार ।

सिंह / लायन ( बिल्ली प्रजाति ):

  • भारत में वर्तमान में सिर्फ गुजरात राज्य के गिर के वनों में इनका प्राकृतिक रहवास।
  • मध्यप्रदेश का कूनो पालपुर राष्ट्रीय उद्यान सिंह के आगमन हेतु पूर्ण तैयार।
  • नर को उसके गर्दन में बालों के कारण मादा से भिन्नता करना संभव ।
  • नर, मादाएं एवं शावक एक साथ झुंड (Pride) के रूप में।

वन बिलाव / जंगल कैट ( बिल्ली प्रजाति ):

  • रंग बालुई भूरा/पीला भूरा, घरेलू बिल्ली से आकार में बड़ी।
  • पूँछ में मध्य से किनारे तक काले छल्ले, अन्तिम भाग काला।
  • गले छाती तथा पैरों में काली धारियाँ ।

भेड़िया / वोल्फ ( कुत्ता प्रजाति ):

  • कुत्ता वंश में भारत का सबसे बड़ा वन्यजीव।
  • शरीर का रंग लालिमा लिये हये, मटमैला सफेद, आकार में कुत्ते के समान, भौंहें धनुषाकार।
  • बच्चों का लालन पालन, नर एवं मादा द्वारा संयुक्त रूप से।
  • एक दिन में कई किलोमीटर तक का प्रवास ।
  • सामान्यतः घने वनों मे आवास नहीं।

सोनकत्ता / ढोल / वाईल्डडॉग ( कत्ता प्रजाति ):

  • रंग कत्थई व चमकीला तथा काली झबरीली पूँछ ।
  • खड़े कान जिनका ऊपरी भाग अर्ध चंद्राकार।
  • पंजो के निशान सूंघकर पीछा करना, दौड़ा कर, एवं थकाकर शिकार करने की आदत, सामूहिक रूप से झुण्ड में शिकार।
  • कभी कभार शिकार को लेकर बाघ से लड़ाई, बेहद साहसी।
  • मानव पर हमले का कोई इतिहास नहीं।
  • कुत्ता प्रजाति का होकर भी भौकता नहीं है, अपितु सीटी के सामान आवाज से संकेतों का आदान प्रदान।

सियार / जैकाल / लडैया ( कुत्ता प्रजाति ):

  • रंग सुनहरा, लाल, भूरा एवं कत्थई का मिश्रण।
  • बाघ के शिष्य के रूप में मान्यता।(शिकार के बचे हुये भाग के लिये बाघ का अनुसरण के कारण)
  • अकेले या जोड़े में या समूह में विचरण।

लोमड़ी / फॉक्स ( कुत्ता प्रजाति ):

  • कुत्ता प्रजाति का आकार में सबसे छोटा वन्यप्राणी।
  • झबरीली लम्बी पूँछ, कान खड़े, थूथन लम्बी, शरीर पर मुलायम बाल ।
  • आमतौर पर जोड़े में विचरण।

लकड़बग्गा / हायना ( कुत्ता प्रजाति ):

  • स्लेटी त्वचा पर हल्की काली धारियाँ, धारियों के कारण कई बार ग्रामीणों द्वारा इसे बाघ की मान्यता।
  • अगले पैर मजबूत एवं बड़े, पिछले पैर छोटे।
  • दाँत एवं जबड़े अत्यधिक मजबूत।
  • दूसरे प्राणियों के छोड़े गये माँस एवं हड्डियों का भक्षण कर जंगल का सफाई कामगार।

मृग ( Antelope) एवं हिरण ( Deer) में अंतर

अ.क्र.

विवरण

मृग

हिरण

1

सींग

सींग (हॉर्न)

स्थाई (जीवन भर रहते है) खोखले रक्त वाहिनी (Blood Vessels) एवं संवेदक तन्तु पाये जाते है। अतः सींग के टूटने पर रक्त निकलता है। शाखाएँ नहीं होती है।

कोई बाह्य आवरण नही

श्रृंग (एन्टलर) स्थाई (हर वर्ष गिरते है।) रक्त वाहिनी अनुपस्थित अतः इसके टूटने पर रक्त नहीं निकलता है।

शाखाएँ होती है।

वेलवेटी आवरण मौजूद

2

लैंडी

एक ही स्थान पर मल त्याग

मल त्याग कहीं भी

बारहसिंगा / स्वाम्पडियर ( हिरन ):

  • प्रदेश का राजकीय वन्यप्राणी ।
  • दलदली घास के मैदान में पाये जाने के कारण स्वाम्प डियर नामकरण।
  • हिरन प्रजाति का, सिर पर सर्वाधिक शाखाओं वाले एन्टलर मौजूद।
  • म.प्र. के एक मात्र राष्ट्रीय उद्यान कान्हा में प्राकृतिक निवास, कान्हा में पायी जाने वाली उपप्रजाति हार्ड ग्राउण्ड बारहसिंगा।
  • हाल के वर्षो मे सतपुड़ा टाईगर रिजर्व एवं वन विहार राष्ट्रीय उद्यान में सफलतापूर्वक पुनर्स्थापना।

सॉभर ( हिरन ):

  • हिरन प्रजाति का भारत का सबसे बड़ा वन्यप्राणी।
  • नर में सिर पर एन्टलर तथा गले मे बालों की अयाल।
  • आवास घने पहाड़ी वनों में।
  • सदैव चौकन्ना एवं सतर्क, खतरा होने पर पोंक की आवाज निकालकर एवं अगला पैर जमीन पर पटककर अलार्म कॉल, मुख्य गुण।

चीतल ( हिरन ):

  • हिरन प्रजाति का सबसे सुन्दर वन्यप्राणी, शरीर पर सफेद चित्ती, नर में सिर पर एन्टलर।
  • सर्वाधिक सामाजिक, लंगूरों से मित्रता।
  • घने वनों के बीच फैले हुए घास के मैदान प्रिय आवास स्थल।

भेड़की / कॉकड़ा / कुटरी / बार्किंग डियर ( हिरन ):

  • हिरन प्रजाति के इस प्राणी के एण्टलर बिना शाखादार, जिनमें आधार में पेडीसिल उपस्थित। मादा में एन्टलर के स्थान पर बालों का गुच्छा।
  • रंग गहरा बादामी।
  • चेहरे पर V आकार की दो पसलियों के समान उभरी आकृतियों के कारण इसका नाम रिबफेस्ड डियर भी।
  • दिन में कम से कम दो बार जल की आवश्यकता के कारण रहवास, पानी के नजदीक।
  • बोलने पर कुत्ते जैसी आवाज के कारण बार्किंग डियर नामकरण।
  • झुक कर तथा फुदक फुदक कर चलना विशेषता।

माऊस डियरा / मूषक हिरन ( हिरन ):

  • हिरन प्रजाति का प्रदेश में पाये जाने वाला सबसे छोटा प्राणी।
  • लम्बाई अधिकतम दो फुट एवं ऊचाई एक फुट तक।
  • शरीर का रंग जैतूनी भूरा कुछ हल्का पीला ।
  • गले के नीचे एवं छाती पर तीन सफेद पट्टियाँ ।
  • एन्टलर अनुपस्थित, पेट का भाग सफेद।
  • कमर का भाग अपेक्षाकृत ऊपर उठा हुआ।

रोजड़ा / नीलगाय / ब्लूबुल ( मृग ):

  • मग प्रजाति में एशिया का सबसे बड़ा वन्यप्राणी केवल भारत तक सीमित।
  • शुष्क, खुले, झाड़ी और घास युक्त मैदानी क्षेत्रों मे रहवास, वन क्षेत्र में मौजूदगी, जैविक दबाव अधिक होने का संकेत।
  • नर के शरीर का रंग स्लेटी, मादा एवं बच्चों का अखरोटी, टाँगें और सिर लंबा, गरदन मोटी तथा पीठ ढलवाँ।
  • ऊबड़-खाबड़ भूमि पर भी घोड़े जैसी तीव्र गति से भाग सकने की छमता।
  • नर में सिर पर छोटे व मजबूत सींग एवं गले में काली बकरे जैसी दाड़ी ।
  • खास स्थल पर सार्वजनिक रूप से ही मल त्याग (Community Dropping)

कृष्ण मृग / ब्लैक बक ( मृग ):

  • अति सुन्दर आकर्षक देह, श्वेत श्याम वर्ण, उमेठे हुये सींग के कारण नर को सुन्दरतम मृग की उपमा।
  • मादा एवं बच्चों का रंग अखरोटी। वयस्क नर काले रंग का।
  • खुले मैदानों एवं खेतों के आस-पास समूह में रहवास।
  • दृष्टि एवं घ्राण शक्ति अत्यन्त तेज ।
  • ऊँची स्प्रिंगदार कुलाँचें, तेज छलाँग एवं दौड उल्लेखनीय।
  • पश्चिमी राजस्थान में विश्नोई समुदाय द्वारा इनके संरक्षण को सामाजिक दायित्व के रूप में मान्यता।

चौसिंगा / फोर हॉर्न एन्टीलोप ( मृग ):

  • विश्व का एक मात्र चार सींगों वाला मृग, सींग बिना छल्लों के, मादा सींग विहीन।
  • शरीर का रंग धूमिल लाल एवं भूरा।
  • पिछला भाग, अग्र कंधो की तुलना में कुछ ऊंचा उठा हुआ।
  • मृगों में जुगाली करने वाला सबसे छोटा शर्मीला प्राणी।
  • रहवास जल स्त्रोतों के नजदीक।

चिंकारा ( मृग ):

  • नर एवं मादा दोनों में घुमावदार सींग नर में कुछ बड़े, सींगों में 15 से 25 छल्ले।
  • शुष्क झाड़ी युक्त मैदानीं वन क्षेत्रों में रहवास।
  • शरीर का रंग अखरोटी, ठुड्डी, छाती, पेट एवं पिछले पुट्ठे सफेद रंग के चेहरे के दोनों तरफ सफेद पटटी।
  • पूँछ काली, छोटी, सदैव चलायमान।

रीछ।भालू :

  • शरीर पर काले लम्बे बाल, सीने पर सफेद माला के समान आकृति (V के आकार की)
  • आँखें छोटी, लम्बी थूथन एवं छोटे पैर।
  • नाखून लम्बे-कीड़े खोजने, खोदने एवं पत्थरों को पलटने में मददगार ।
  • देखने सुनने की शक्ति कमजोर, सँधने की क्षमता तेज, निशाचर।
  • सर्वभक्षी के रूप में मान्य, भोजन में माँस, मछली, अण्डे, फल, जड़ें, कीड़े, दीमक, चीटियाँ, महुआ, बेर एवं शहद आदि।

जंगली सुअरः

  • शक्तिशाली, निडर, मध्यम आकार का सर्वभक्षी वन्यप्राणी।
  • देशी सुअर की तुलना में पूँछ पतली (बहुत कम बाल) एवं लम्बी, आगे के दो दांत (खींसें) अधिक लम्बे।
  • थूथन लम्बी, गर्दन मोटी एवं माँसपेशी युक्त, टाँगें छोटी एवं मजबूत, पीठ पर काले बालों की क्रेस्ट।
  • रहवास झुण्डों में, फसलों के लिये क्षतिकारक।

गौर / इन्डियन बायसन ( गाय प्रजाति ):

  • दुनियाँ का गौ वंश का सबसे बड़ा, ताकतवर एवं वजनदार वन्यप्राणी, वजन 900 किलो तक ।
  • नवजात बच्चों का रंग भूरा, वयस्कों का रंग कत्थई एव काला।
  • घुटनों से खुरों तक का रंग सफेद (मोजे के समान) एवं कंधो के उपर उभरी हुइ माँसल रिज से पहचान।
  • समूह में विचरण व घने पहाड़ी वनों में रहवास, बाँस की पत्तियाँ एवं कोपलें प्रिय भोजन।

हनी बैज / बिज्जू / रैटलः

  • शरीर का ऊपरी भाग सफेद निचला भाग काला, भालू के सामान किंतु बहुत छोटा।
  • रात्रि चर, नाखून मजबूत, बिल खोदने में मददगार।
  • निडर एवं दुस्साहसी, मुख्यतः माँसाहारी, अकसर जोड़े में विचरण।

पैंगोलिन / चीटीखोरः

  • भारत का एकमात्र चींटीखोर (AntEater)
  • मुख दन्तविहीन, सम्पूर्ण शरीर शल्कों से आवरित।
  • लम्बी लपलपी लसीली जीभ दीमक, चींटी और उनके अण्डे खाने में मददगार।
  • रात्रिचर एवं खुद के खोदे गये बिलों में रहवास।
  • दृष्टि एवं श्रवण शक्ति कमजोर परन्तु घाँण शक्ति तेज।
  • खतरा होने पर सिर को मध्य में छुपाकर गेंद की शक्ल में अपने आपको समेटना मुख्य गुण, जिसे खोलना संभव नहीं।

सेही / पोकूपाईनः

  • भारत में चूहा परिवार का सबसे बड़ा सदस्य।
  • सम्पूर्ण शरीर पर बालों के रूपान्तरण नुकीले, गहरे भूरे, खोखले, काले सफेद छल्ले युक्त काँटों का आवरण।
  • शरीर के काँटे अंदर से खोखले, खड़े होने पर आपस में टकराने से खड़खड़ाहट की आवाज के कारण परभक्षियों से सुरक्षा।
  • बिलों या घनी झाड़ियों में रहवास ।
  • मुख्यतः शाकाहारी-अनाज के दाने, फल, जड़ें, पेड़ों की छाल, हड्डी आदि मुख्य भोजन ।

सिवेट / बिज्जू / टोड़ीकैटः

  • शरीर पर काले भूरे लम्बे खड़े बाल।
  • पीठ पर क्षैतिज रेखाएं, चेहरे एवं आँखों के नीचे सफेद धब्बे।
  • खोखले वृक्षों, खोहों, बिलों अंधेरे छप्परों , अधेरी गुफाओं, दुछत्तियों, सीलिंग एवं तलघरों में रहवास।
  • रात्रिचर, सर्वभक्षी मुख्य भोजन फल, बीज, कीड़े मकोड़े, छोटे पशु पक्षी।
  • गुदा द्वार के पास पायी जाने वाली ग्रंथि से अत्यन्त बदबूदार रसायन छोड़कर अपने परभक्षियों से सुरक्षा।

नेवला / मंगूसः

  • पैर छोटे, थूथन लम्बी व नुकीली, आँखें चमकीली, पूँछ लम्बी एवं झबरीली ।
  • अति फुर्तीला प्राणी घने बालों व सर्प के जहर को सह सकने की क्षमता के कारण सर्प के शिकारी के रूप में मान्य।
  • भोजन में चूहे, पक्षियों के अंडे, सर्प, मेंढ़क, कीड़े मकोड़े आदि शामिल।
  • पेन्टिंग ब्रश में इसके बालों के उपयोग के कारण इनका शिकार ।

जलीय प्राणी

गंगा की सौंस / रिवर डॉलफिन / सौंसः

  • प्रदेश में चम्बल, सिंध, बेतवा, केन तथा सोन नदियों में प्राकृतिक आवास
  • दृष्टि विहीन, देखने के लिये ईको लोकेशन सिस्टम।
  • लम्बी यूँथन, जल क्रीड़ा पसंद।
  • अनियंत्रित मत्स्य आखेट से अस्तित्व को खतरा ।
  • भोजन में मछलियाँ, केंकड़े, छोटे पक्षी एवं छोटे कछुए आदि ।

ऊदविलाव / ऑट्टरः

  • भारत में पायी जाने वाली तीन प्रजातियों में से एक, चिकनी चमड़ी वाला ऊदविलाव (स्मूथ कोटेड ऑटर) प्रदेश की नदियों में मौजूद।
  • रहवास, पथरीली नदियों, झीलों में ।
  • प्रदेश में चम्बल, केन, सोन, नर्मदा, भद्रा, तवा एवं देनवा नदियों में मौजूद।

मगरः

  • सरीसृप वर्ग का प्रागैतिहासिक जीव, ट्रियासिक युग से (लगभग 20 करोड़ वर्षों से) विद्यमान ।
  • प्रदेश में साफ पानी में पायी जाने वाली प्रजाति लगभग सभी नदियों, तालाबों एवं झीलों में मौजूद।
  • रंग फीका हरा या जैतूनी, पेट मटमैला सफेद।
  • सिर, धड़ तथा पूँछ का हिस्सा अत्यन्त कठोर हड्डी का, जिस पर कीलनुमा कांटे।
  • चार छोटे पैरों की सहायता से जमीन पर चलने में सक्षम ।
  • भोजन-स्तनधारी, पक्षी, सरीसृप एवं उभयचर ।
  • नेस्टिंग नदी के किनारे मार्च-अप्रैल में, एक बार में 10 से 35 अंडे ।

घड़ियाल :

  • सरीसृप वर्ग का प्रदेश में पाये जाने वाला दूसरा महत्वपूर्ण जीव ।
  • अत्यन्त संकटग्रस्त, प्रदेश में इसके संरक्षण के लिये चम्बल, केन एवं सोन नदियों में अभयारण्य स्थापित।
  • नर के थूथन के छोर पर घड़े की आकृति, जिसके कारण ही इनका नाम घड़ियाल ।
  • कमजोर मांस पेशियों के कारण किनारे से अधिक दूर जाना संभव नही।
  • एक बार में 18 से 52 अंडे, अंडों की सुरक्षा नर एवं मादा दोनों के द्वारा।
  • अंडों की हेचिंग से 24 घंटे पहले, नेस्ट से क्रोकिंग की आवाज।
  • भोजन में मछली, मेंढ़क तथा केंकड़े शामिल।

पक्षी जगत

पक्षियों की विशेषताएं :

  • पक्षी नियततापी पंखयुक्त, दो पैर वाले, दन्तविहीन चोंच, लोचदार गर्दन एवं शरीर वायु गतिकीय (ऐरोडायनामिक)।
  • शरीर में उड़ने के लिये कई अनुकूलन जैसे त्वरित पाचन एवं उत्सर्जन, नेत्र अधिक क्रियाशील, खोखली हड्डी, फेफड़ों में वायुकोष, रक्त में अधिक ऑक्सीजन तथा लम्बी दृष्टि।
  • संतानोत्पत्ति अंडों के माध्यम से ।
  • स्वाद इन्द्रियां अल्प तथा घ्राणशक्ति नगण्य ।
  • प्रायः नर पक्षियों के रंग अधिक चटकीले ।
  • विश्व में लगभग 12,000 देश में 1,200 एवं प्रदेश में 400 प्रजातियों के पक्षी चिन्हित।

विशिष्ट पक्षी :

  • विश्व का सबसे बड़ा-शुतुरमुर्ग (वजन के कारण उड़ने में असमर्थ) ।
  • भारत का सबसे बड़ा-सारस क्रेन।
  • भारत का सबसे छोटा-टिकल्स फ्लावर पैकर।
  • गाने वाली चिड़ियां-बुलबुल, थ्रस एवं समा ।
  • बोलने वाले-पहाड़ी मैना, टुइंया तोता ।
  • समूह में रहने वाले-7 बहनें ।

परिस्थितिकीय तंत्र एवं मानव जीवन में पक्षियों की भूमिकाः

  • कीट पतंगों का भक्षण कर फसलों की सुरक्षा।
  • माँसाहारी पक्षियों द्वारा चूहों को खाकर चूहों की संख्या पर नियंत्रण।
  • गिद्ध, कौए, चील आदि पक्षी मृत प्राणियों के अवशेषों को खाकर सफाईकर्मी के रूप में मान्य।
  • परागण एवं बीजों के प्रकीर्णन में महत्पूर्ण भूमिका।
  • कई प्रजातियों के फल खाकर उनके अंकुरण में सहायक।
  • अन्य जीवों के भोजन के रूप में, प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत ।
  • हानिकारक जलीय जन्तुओं को खाकर जलीय पौधों की वृद्धि में सहायक।
  • मछलियों के परभक्षियों को खाकर मानव के सहायक।
  • विष्ठा, नाइट्रोजन एवं फास्फोरस का महत्वपूर्ण स्त्रोत होने के कारण पौधों की वृद्धि में सहायक।

पक्षियों को देखने का तरीकाः

  • पक्षियों को देखने के लिये एक अच्छी गुणवत्ता की दूरबीन (binocular), एक फील्ड गाईड, एक नोटबुक एवं पेंसिल की आवश्यकता।
  • फोटोग्राफी के शौकीनो हेतु कैमरा भी आवश्यक।
  • पक्षी दर्शन करते समय भड़कीले कपड़े पहनना, शोर शराबा करना एवं पक्षियों को परेशान करना प्रतिबन्धित।

पक्षियों को देखने का समय :

  • पक्षियों की मौजूदगी सभी प्रकार के वातावरणों में।
  • पक्षियों के दर्शन की शुरूआत अपने घर एवं आसपास से ही।
  • विशिष्ट पक्षियों के दर्शन हेतु उनके प्राकृतिक रहवास स्थल तक का सफर जरूरी।
  • अधिकतर पक्षियों की क्रियाशीलता केवल प्रातः एवं साँयकाल में ही. अतः पक्षी दर्शन का उपयुक्त समय केवल सूर्योदय एवं सूर्यास्त ही।

"अपने आस-पास, प्रायः सभी मौसम में पाये जाने वाले सामान्य स्थलीय एवं जलीय पक्षियों के छाया चित्र दर्शित हैं। छाया चित्रों की सहायता से पक्षी पहचानने का प्रयास करें।"




संकटापन्न पक्षी - गिद्ध

  • विश्व में इस विशिष्ट प्रकार एवं वृहद् आकार के पक्षी को परिस्थितिकीय तंत्र में सफाई कर्मी के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त।
  • पक्षी द्वारा मृत पशुओं की देह को अपने भोजन के रूप में उपयोग कर उसके सड़ने एवं बीमारी फैलाने से रोक।
  • गिद्धों की विश्व में 30, भारत में 9 एवं मध्यप्रदेश में 7 प्रजातियाँ (प्रथम 4 स्थाई रहवासी एवं 3 प्रवासी)।
    • लम्बी चोंच गिद्ध /भारतीय गिद्ध (लॉग विल्ड वल्चर)।
    • सफेद पीठ गिद्ध (व्हाइट रम्प्ड वल्चर)।
    • सफेद गिद्ध (इजिप्शियन वल्चर)।
    • राज गिद्ध (किंग/रेड हैडेड वल्चर)।
    • भारतीय ग्रिफान गिद्ध।
    • हिमालयन ग्रिफान गिद्ध।
    • सेनिरियस गिद्ध।
  • मवेशियों को दी जाने वाली दवा डाईक्लोफेनाक के दुष्प्रभाव के कारण देश में इनकी संख्या में अत्यंत गिरावट।
  • गिद्धों की संख्या में कमी के कारण ग्रामों के बाहर मृत मवेशियों की देह से दुर्गन्ध एवं बीमारियों के विषाणुओं की उत्पत्ति जिससे मानव के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव।
  • शासन द्वारा 2005 में यह दवा प्रतिबंधित, डाईक्लोफेनाक के विकल्प के रूप में एक नई दवा मेलोक्सीकेम बाजार में उपलब्ध।
  • मध्यप्रदेश शासन द्वारा गिद्धों की प्रजाति को विलुप्ति से बचाने हेतु अन्तः - स्थलीय एवं बाह्य-स्थलीय संरक्षण के प्रयास जारी।
  • गिद्ध संवर्धन के लिये भोपाल में गिद्ध प्रजनन एवं संवर्धन केन्द्र स्थापित कर गिद्धों की केप्टिविटी में ब्रीडिंग एवं वयस्क गिद्धों को उनके प्राकृतिक रहवास में विमुक्त करने की योजना।
  • प्रदेश में गिद्धों के संवर्धन प्रयासों से शनैः शनैः इनकी संख्या में उत्तरोतर वृद्धि परिलक्षित।

आप अपने परिवार एवं अपने ग्राम में, मवेशियों को दी जाने वाली प्रतिबंधित दवा डाइक्लोफेनाक का उपयोग, पूर्णतः बन्द कर गिद्धों के संरक्षण एवं संवर्धन में, अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते है।


सर्प हमारे मित्र : दुश्मन नहीं

  • जमीन पर रेंगने वाले सर्प विभिन्न किवदंतियों, भ्रामक जानकारियों के कारण, समाज में भय उत्पन्न करने वाले जीवों के रूप में मान्य।
  • सर्प हानिकारक चूहों, कीड़े मकोडों का भक्षण कर खाद्यान्न सुरक्षा में योगदान देकर मानव जाति के लिये अत्यन्त उपयोगी।
  • सर्प विष से अनेक जीवन रक्षक दवाएं, अतः हमारे अस्तित्व के लिये सर्पों का संरक्षण हमारा दायित्व ।
  • सर्पों की संसार में 2700, भारतवर्ष में 270 एवं मध्यप्रदेश में 38 प्रजातियाँ मौजूद।
  • सर्प शीतरक्तकीय प्राणी होने के कारण अपने शरीर का तापमान बनाये रखने के लिये बाहरी स्त्रोत पर निर्भर ।
  • सर्पों की श्रवण शक्ति शून्य, अतः बीन की धुन पर नाचने की मान्यता सही नहीं, कम्पन के माध्यम से आस-पास की घटनाओं, संवेदनाओं की प्राप्ति।
  • अन्य जीवों की मौजूदगी का एहसास उनके तापमान एवं कम्पन से, सूचना प्राप्त करने का कार्य उनकी दो भागों में बटी जीभ द्वारा, जैकबसन ऑरगन में विश्लेषण कर शिकार की सटीक जानकारी की प्राप्ति।
  • अधिकाँशतः सर्पों में संतानोत्पत्ति अंडों द्वारा, किन्तु कुछ सर्पों में सीधे नवजातों का जन्म, जैसे- सैंडबोआ, वाईपर, वाइनस्नेक।
  • अधिकाँश सर्पों की प्रजातियाँ विष हीन।
  • विषैले सर्पों में एक जोड़ा विषदन्त ऊपरी जबड़े में मौजूद ।
  • विषैले सर्पों के काटने का एकमात्र उपचार चिकित्सालय में एन्टीवेनम इन्जेक्शन, अतः झाड़-फूंक पूर्णतः निष्प्रभावी।


रंगबिरंगी तितलियाँ

  • विभिन्न रंगों की छटा एवं पंखों की सुंदर कलाकृतियों के कारण तितलियों को बहुत ही आकर्षक जीव के रूप में मान्यता प्राप्त।
  • लगभग हर भू-भाग में पायी जाने वाली तितलियों की विश्व में लगभग 17,000 एवं भारत में लगभग 1500 प्रजातियाँ चिन्हित।
  • तितली को अंग्रेजी में बटरफ्लाई कहा जाता है, जो अंग्रेजी के शब्द बटर अर्थात् मक्खन से बना है, जिसका कारण ब्रिमस्टोन नाम की यूरोप में पायी जाने वाली मक्खन के रंग की तितली।
  • तितली में दो संयुक्त नेत्र, दो ऐन्टीना, एक प्रोबोसिस, तीन जोड़ पैर तथा दो जोड़ पंख मौजूद।
  • तितलियों में मौजूद प्रोबोसिस द्वारा फूलों के पराग एवं अन्य-द्रव पदार्थों को चूसने का कार्य।
  • स्वाद ग्रंथियाँ तितलियों के पैरों में मौजूद, जिसकी मदद से तितलियों द्वारा भोजन एवं अण्डे देने के लिये उपयुक्त पौधों का चयन।
  • ठण्डे रक्त वाले जीव होने के कारण शरीर का तापमान वातावरण की ऊष्मा से नियंत्रित।
  • तितलियों की औसत आयु 4 से 8 सप्ताह तक।
  • पुष्पों के परागण में सहायक एवं प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला में कई जीवों का आहार होने के कारण तितलियों की पारिस्थितिक तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका।


जीवन चक्र

  • तितलियों का जीवन अंडे से प्रारंभ होता है, जिसमें से कुछ समय बाद इल्ली (Caterpillar या larva) निकलती है।
  • इल्ली एक खाने की मशीन जैसी होती है जिसका मुख्य उद्देश्य भविष्य के लिए भोजन भंडारण होता है। जैसे-जैसे इल्ली का शरीर बड़ा होने लगता है, वह अपने बाहरी त्वचा आवरण को केंचुली की तरह उतारती जाती है। यह इल्ली के जीवन काल में चार से पांच बार तक होता है। यह Instar कहलाते हैं।
  • प्रत्येक प्रजाति की तितली की इल्ली कुछ विशेष प्रजाति की वनस्पति होस्ट प्लांट (HostPlant) के पत्तों का ही भक्षण करती है। इस प्रजाति के पौधों पर ये अण्डे देती है। अतः वनस्पति होस्ट प्लांट (Host Plant) और तितली का जीवन एक दूसरे पर निर्भर होता है, इसे पारस्परिक आश्रय (Mutualism) कहा जाता है।
  • जब इल्ली परिपक्व हो जाती है तब वह एक शांत एवं सुरक्षित स्थान खोज कर एक सिल्क जैसा तंतु बनाकर लटक जाती है और एक अन्य अवस्था, जिसे प्यूपा (Pupa) कहते हैं, में पहुंच जाती है।
  • प्यूपा अवस्था के दौरान विशिष्ट रसायनों के प्रभाव से इल्ली का शरीर आश्चर्यजनक ढंग से तितली में परिवर्तित हो जाता है। इस परिवर्तन के बाद तितली प्यूपा के खोल को छेदकर बाहर निकलती है। कुछ समय तक स्थिर रहने के बाद, जिस दौरान पंखों में रक्त संचार होता है और तितली का पूरा शरीर सूखता है, तितली उड़ने में सक्षम हो जाती है।
  • अंडे से प्रारंभ होकर इल्ली फिर प्यूपा फिर तितली में परिवर्तन को कंप्लीट मेटामॉर्कोसिस (Complete Metamorphosis) कहते हैं।
  • कुछ ही अंडे अंततः तितलियों के जनक हो पाते हैं क्योंकि अंडे, इल्ली, प्यूपा इन सभी समस्याओं में इनके प्राकृतिक शिकारी जैसे चींटी, पक्षी, मकड़ी, ड्रेगनफ्लाई आदि इनका भक्षण करते रहते हैं। 300 अंडों में से अंततः 2 ही तितलियाँ बच पाती हैं।

रंग संयोजन

  • तितली के पंख पर छोटी-छोटी कवेलू जैसी संरचनाएं होती हैं, जिन्हें स्केल्स (Scales) कहा जाता है। जब प्रकाश की किरणें इन स्केल्स पर पड़ती हैं तो इन स्केल्स का आकार प्रकार की किरणों के तरंगदैर्ध्य (Wavelength) के समतुल्य होने के कारण प्रकाश-किरणों के व्यतिकरण (Interference) की घटना घटित होती है, जिससे कुछ रंगों की किरणें एक दूसरे का प्रभाव समाप्त कर देती हैं और कुछ रंगों की किरणें एक दूसरे का प्रभाव बहुगुणित कर देती हैं। इस प्रकार तितलियों के पंखों का रंग, कुछ तो स्केल्स के रंग तथा कुछ प्रकाश-व्यतिकरण के कारण उत्पन्न रंगों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होते हैं।

गति

  • तितलियों की औसत गति लगभग 10 किमी/घंटा होती है। किंतु कुछ तितलियों की गति 50 किमी/घंटा या उससे भी अधिक होती है।

आकार

  • तितलियों का आकार दोनों पंखों की कुल चौड़ाई से मापा जाता है। सबसे छोटे आकार की तितली ग्रास ज्युएल (Grass Jewel) होती है जिसका आकार 15 से 22 मिमी होता है और सबसे विशाल क्वीन एलेक्जेन्ड्राज बर्डविंग है, जिसका आकार लगभग 250 मिमी होता है।

आयु

  • तितलियों की औसत आयु 4 सप्ताह (छोटे आकार) से 8 सप्ताह (बड़े आकार) तक होती है।

पारिस्थितिकीय महत्व

  • तितलियाँ, पारिस्थितिकीय तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, जैसे फूलों के परागण में सहायक होती हैं, प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला (Food Chain) में कई जीवों का आहार होती हैं, जिस वासस्थल में पाई जाती हैं, वो अन्य जीव-जन्तु के भी महत्त्वपूर्ण वासस्थल होते हैं।

विशिष्टताएं

  • कई प्रजाति की तितलियों में नर एवं मादा तितली अलग-अलग रंग रूपों की होती हैं। इसे लैंगिक द्विरूपता (sexual Dimorphism) कहा जाता है।
  • कई प्रजाति की तितलियाँ अलग अलग ऋतुओं में अलग-अलग रूप-रंगों में पाई जाती हैं। इसे मौसमी भिन्नता (Seasonal Variation) कहते हैं।
  • तितलियों का अपने प्राकृतिक शिकारी प्राणी से बचाव का सर्वश्रेष्ठ हथियार उनका अपने रूप-रंग के कारण आसपास के वातावरण में घुल-मिल जाना होता है, जिसे छद्मावरण (Camouflage) कहा जाता है।
  • इसके अतिरिक्त तितलियाँ अपने बचाव के लिये स्वांग (Mimicry) का भी उपयोग करती हैं। कुछ प्रजाति की तितलियाँ ऐसी तितलियों जैसी दिखती हैं जो विषैली होने के कारण परभक्षियों द्वारा नहीं खाई जाती है। इस प्रकार के स्वांग को बाटेशियन मिमिक्री (Batesian Mimicry) कहा जाता है। अन्य प्रकार में अनेक विषैले प्रकार की प्रजातियों की तितलियाँ एक सी दिखाई देती हैं, जिसके कारण ऐसी समस्त प्रजाति की तितलियों का परभक्षियों द्वारा भक्षण नहीं किया जाता है। इस तरह के स्वांग को म्यूलेरियन मिमिक्री (Mulerian Mimicry)कहा जाता है।
  • पक्षियों एवं अन्य जानवरों की तरह तितलियों की कुछ प्रजातियाँ भी प्रवास करती हैं। उत्तरी अमेरिका महाद्वीप में पाई जाने वाली एक तितली, मोनार्क, प्रतिवर्ष लगभग 3000 किमी. की दूरी का प्रवास करती है। इस तरह का एक प्रवास उनकी 3 से 4 पीढ़ियों द्वारा पूरा किया जाता है।

विशिष्ट जानकारी

  • सबसे छोटी तितली - ग्रास जुक्ल (15 से 22 मिमी.)
  • सबसे बड़ी तितली - क्वीन एलेक्जेन्ड्रा बर्डविंग (250 मिमी.)
  • सबसे बड़ा प्रवास - उत्तरी अमेरिका की तितली मोनार्क द्वारा प्रतिवर्ष 3000 कि.मी. की दूरी तय करना (3 से 4 पीढ़ियों का योगदान)